लोग कहने लगे हैं इस जंक्शन में दर्द बहुत है ..... तो मैं अब अपनी कविताओं को कुछ दिनों के लिये विराम देता हूँ और..... अब जंक्शन पर आप को एक पैग पटयाला के साथ दर्द नही कुछ रोचक किस्से सुनाता हूँ ..........
एक शाम तब मैं नॉएडा रहा करता था ...दोस्तों ने प्लान बनाया की चलो दिल्ली चलते हैं ...पुछा दिल्ली में कहाँ ...दूसरा बोला चलो सी पि चलो ॥ शाम को वहां कीबात ही कुछ और है सब बोले चलो चलो .......
गाड़ी किसी के पास थी नही मोटर साइकिल हमारे हॉस्टल में काफी थी .... सच कहूँ तो तब दिल्ली जाना अपने लिए बहुत बड़ी बात होती थी ...... गाँव से जो आए थे ......
ठीक है सब निकल पड़े .... दिल्ली आ गए ... जानने की ईशा थी की आख़िर सीपी में ऐसा है क्या ........ जब पहुंचे तो देखा एक अलग सी दुनिया थी सोच से कहीं दूर ......लड़के लड़कियां हाथ थामे गोल गोल गूम रहें हैं अरे भाई सीपी में गोल गोल इमारत हैं न इस लिये लगता है सब गोल घूम रहे हैं ..........साथ जीने मरने की कसमे खा रही है .......
काफी जगह बैठने के लिये बेंच लगा रखे थे ... वहां दुनिया को बूल कर प्रियतमा अपने प्रेमी के कंधे पर सर रख का कुछ बोल रही है ....अगर आप सुनना भी चाहे तो नही सुन सकते .......और प्रेमी आतीजाती लड़कियां की तरफ निहार रहा है जब प्रियतमा ने ये देखा तो वही हुआ ओ होता है लडाई .......उस में ऐसा क्या है ...बताओ ..... मामला बड रहा था ...हम ने कुछ देर उस प्रेमी युगल के मजे लिये और आगे बड गए ......
और दिल्ली वालों की तर्ज पर गोल गूमने लग गए .........
मैं तो आज तक नही समाज नही पाया दिल्ली वाले कहाँ जा रहे है अगर आप को समज पाए हों तो बताना
एक शाम तब मैं नॉएडा रहा करता था ...दोस्तों ने प्लान बनाया की चलो दिल्ली चलते हैं ...पुछा दिल्ली में कहाँ ...दूसरा बोला चलो सी पि चलो ॥ शाम को वहां कीबात ही कुछ और है सब बोले चलो चलो .......
गाड़ी किसी के पास थी नही मोटर साइकिल हमारे हॉस्टल में काफी थी .... सच कहूँ तो तब दिल्ली जाना अपने लिए बहुत बड़ी बात होती थी ...... गाँव से जो आए थे ......
ठीक है सब निकल पड़े .... दिल्ली आ गए ... जानने की ईशा थी की आख़िर सीपी में ऐसा है क्या ........ जब पहुंचे तो देखा एक अलग सी दुनिया थी सोच से कहीं दूर ......लड़के लड़कियां हाथ थामे गोल गोल गूम रहें हैं अरे भाई सीपी में गोल गोल इमारत हैं न इस लिये लगता है सब गोल घूम रहे हैं ..........साथ जीने मरने की कसमे खा रही है .......
काफी जगह बैठने के लिये बेंच लगा रखे थे ... वहां दुनिया को बूल कर प्रियतमा अपने प्रेमी के कंधे पर सर रख का कुछ बोल रही है ....अगर आप सुनना भी चाहे तो नही सुन सकते .......और प्रेमी आतीजाती लड़कियां की तरफ निहार रहा है जब प्रियतमा ने ये देखा तो वही हुआ ओ होता है लडाई .......उस में ऐसा क्या है ...बताओ ..... मामला बड रहा था ...हम ने कुछ देर उस प्रेमी युगल के मजे लिये और आगे बड गए ......
और दिल्ली वालों की तर्ज पर गोल गूमने लग गए .........
अगला दृश्य जो था वो था फ्राते डार अंग्रेज़ी मैं बात करती वो सड़क किनारे बैठ कर सामान बेचने वाली महिला वो ऐसी अंग्रेजी बोल रही थी जैसी अंग्रेज़ी मैं आज से १० साल बाद बोल लूँ .........
मैं तो आज तक नही समाज नही पाया दिल्ली वाले कहाँ जा रहे है अगर आप को समज पाए हों तो बताना
सब समझ का फेर है, दिल्ली वाले कहीं नहीं जा रहे, जो बहार से आ रहे हैं, उन्हें ऐसा लगता है की की अब तो वे ठहर गए, बाकि लोग जा रहे हैं. लेकिन ऐसा नहीं है यहाँ, जो शहर मुगलों के ज़माने में भी सफ़र करता दिखाई देता हो, वो अब भागता सा लगे तो आप क्या कीजियेगा, वैसे सच बताइए, उसके बाद आप खुद अपने दोस्तों के साथ कितनी बार सीपी का चक्कर लगा चुके हैं. याद है क्या?
अपना दिल भी गोया शहर दिल्ली है
जो भी निकला है उसी ने लूटा है.....!!!
चलिए दर्द के बाद आपके ब्लॉग पर कुछ और तो आया... आज आपकी पिछली कविता पढ़ी.. हालाँकि दर्द और तड़प बहुत है, लेकिन तारीफ करनी होगी कि वाकई, बहुत अच्छी कविता है. अब आपके इस आलेख पर फिलोसोफिकल अंदाज़ में मैं टिपण्णी तो नहीं करूँगा, क्योंकि मुझे खांटी आलोचना पसंद है.. , लेकिन अगर आप मीडिया से जुड़े कुछ और किस्से अपने जंक्शन पर सुनायेंगे तो ज्यादा मज़ा आएगा....
कुन्दन शशिराज